बूढ़ा शिष्य और गुरु की कहानी(Guru purnima special)
एक बार की बात है एक राजा को बुढ़ापे में विद्या ग्रहण करने का विचार आया।उनके जीवन का प्रारम्भिक समय युद्ध लड़ने और विद्रोह को दबाने में ही निकल गया अर्थात उनको पढ़ने लिखने का मौका ही नही मिला।समय बीतने के बाद राज्य की स्थिति ठीक हुई लेकिन तब तक उनके पढ़ने लिखने की उम्र निकल गई।एक दिन दरबार में बैठे हुए उनके मन में विचार आया कि अब मेरी उम्र हो चली है मैने आने जीवन में विद्या ग्रहण किया ही नही।आने वाली पीढियां कहेंगी कि इस राज्य का राजा अनपढ़ था इस कारण उन्होंने निरक्षर के कलंक से मुक्ति के लिए बुढ़ापे में पढ़ाई करने का निश्चय किया।उनको पढ़ाने के लिये अच्छे से अच्छे शिक्षकों को ढूढ़कर लाया गया लेकिन किसी भी शिक्षक का पढ़ाया हुआ उनके समझ में नही आ रहा था। राजा और शिक्षकों को लगता कि उम्र अधिक होने के कारण पढ़ाई लिखाई समझ में नही आ रही है। कई शिक्षक हार मानकर चले गए।अब पूरे राज्य में यह खबर फैल गई कि इस राज्य में कोई भी योग्य शिक्षक नही है क्यो कि इस राज्य का कोई भी शिक्षक राजा साहब को नही पढ़ा पा रहा है। यह खबर जंगल में रहने वाले एक संत के पास पहुँची। उन्होंने सोचा मैं चलकर देखता हूँ। वह संत दरबार में पहुँचे और बताया कि महाराज मैं आपको पढ़ाऊंगा।दरबार में अन्य लोगों को लगा कि जब बड़े बड़े विद्धवान राजा साहब को नही पढ़ा पाए तो यह सामान्य साधु कैसे पढ़ा पायेगा? उन लोगों ने राजा साहब को सलाह दी कि महाराज यह सन्यासी आपको कैसे पढ़ा पायेगा? जो भेषभूषा से ही दरिद्र मालूम पड़ता है।कृपया इसकी बातों में आकर अपना कीमती समय व्यर्थ न करें। हम लोगों ने योजना बनाया है कि दूसरे राज्य से योग्य शिक्षक को लेकर आएंगे जो आपको निश्चित ही पढ़ा देगा। तभी उस संत ने कहा कि महाराज अगर ऐसा हुआ तो पूरे राज्य और अन्य राज्यों में यह खबर फैल जाएगी ।यह पूरे राज्य के लिए शर्म की बात हो जाएगी। आपने जो यश और कीर्ति स्थापित किया है वह सब मिट्टी में मिल जाएगा मुझे एक मौका दिया जाए यदि मैं असफल होता हूँ तो मुझे फाँसी पर चढ़ा दिया जाए।संत के इस बात पर राजा तैयार हो गए ।समय स्थान और कक्ष निश्चित हो गया। संत आते और राजा को पढ़ाते कुछ समय बिता राजा साहब की वही स्थिति जो सन्त पढ़ाते सब उनके ऊपर से निकल जाता। राजा साहब से रहा नही गया उन्होंने संत से पूछा मुझे इतने प्रयास के बाद भी विद्या क्यो नही प्राप्त हो रही है?सन्त ने हल्की मुस्कान के बाद कहा राजन!मैं पहले दिन से ही चाहता था कि आप इस प्रश्न को पूछें। मैं पहले दिन ही जान गया था कि आप विद्या ग्रहण करने में बार-बार असफल क्यो हो जा रहे हैं।फिर सन्त ने एक श्लोक सुनाया जो इस प्रकार है:-
*नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्।*
जिसका अर्थ है:-
गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पर ही बैठना चाहिए। गुरु के आते हुए दिखाई देने पर भी अपनी मनमानी से नहीं बैठे रहना चाहिए। अर्थात गुरू का आदर करना चाहिए।
संत ने बताया कि आपका आसन(बैठने की कुर्सी) मेरे अर्थात गुरु के आसन से ऊँचा है इस कारण से आपके अंदर शिष्य का नही राजा का भाव व्याप्त है।इस कारण से आप विद्या ग्रहण करने में असमर्थ हैं।राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ।
यही कारण है कि प्राचीन समय में राजा के पुत्रों को भी विद्या ग्रहण करने के समय राज दरबार और सुख सुविधा को छोड़कर सन्यासी के भेष में जंगलों में बने गुरुकुलों में विद्या ग्रहण करने के लिए भेजा जाता था।